Kuchh Mahattupoorn Visay aur Islam

महत्वपूर्ण विषय और इस्लाम Important Topics And Islam

जिहाद

जिहाद का शब्द अरबी वर्णमाला के मूल अक्षरों ‘ज-ह-द’ से बना है। इन अक्षरों से बने सारे शब्द ‘घोर यत्न, संघर्ष व परिश्रम’ का भाव रखते हैं, अर्थात् नेकी, अच्छाई, न्याय, शान्ति आदि पर क़ायम रहने तथा इनके विस्तार, उत्थान व स्थापना के लिए अनथक परिश्रम। इसके साथ ही ‘जिहाद’ का एक परिभाषिक अर्थ भी है। परिभाषा के अनुसार, यदि कुछ शक्तियां सशस्त्र होकर ज़ुल्म करें, सैनिक शस्त्र बल से कमज़ोरों पर अत्याचार करें, उनका शोषण करें, बुराई, बदी, अनाचार फैलाएं, शान्ति-सुरक्षा को भंग करें, उपद्रव, फ़साद, क़त्लेआम, नस्लकुशी पर अमल करें तो फिर इस्लाम, मानवता-हित में अपने अनुयायियों को सशस्त्र संघर्ष ‘जिहाद’ का आदेश देता है जिसका अन्तिम रूप क़िताल (युद्ध) है। परन्तु यह सशस्त्र संघर्ष भी नियमों और आदर्शों से बंधा हुआ है। इस्लाम ज़ुल्म के प्रतिरोध में ख़ुद ज़ुल्म करने लगने से, सख़्ती से रोकता है। प्रतिक्रिया को बेलाग नहीं होने देता, उसे नैतिक मूल्यों से बांध कर रखता है ताकि मुसलमान, प्रतिशोधवश स्वयं ही ज़ालिम न बन जाएं। उनका सशस्त्र संघर्ष सिर्फ़ ज़ुल्म की ताक़त को तोड़ने और शान्ति व न्याय स्थापित करने तक ही सीमित है। इसके आगे बढ़ने पर उन्हें ईश्वरीय आक्रोश, दंड एवं प्रकोप की चेतावनी दी गई है।

शरीअत

इस्लाम ने इबादतों, रहन-सहन, पारस्परिक संबंधों और मामलात, कर्तव्यों और अधिकारों, पारिवारिक व सामाजिक मामलों, लेन-देन, खेती-बाड़ी, तिजारत, कारोबार, धन कमाने-ख़र्च करने, आर्थिक मामलों, खान-पान, धन-दान, दाम्पत्य जीवन, राजनीति, न्याय व्यवस्था, युद्ध-सुलह, आदि अन्तर्राष्ट्रीय मामलों इत्यादि संबंधित क़ानून दिए हैं जिन्हें कुल मिलाकर ‘शरीअत’ कहा जाता है। शरीअत मूलरूप से क़ुरआन और हदीस पर आधारित है। शरीअत को बदलने का अधिकार किसी व्यक्ति, समूह, शक्ति या समुदाय अथवा पूरी मुस्लिम क़ौम को भी नहीं है। शरीअत के क़ानून की व्याख्या, विवेचन, हालात, ज़रूरत और परिस्थिति के अनुसार उनका प्रयोग (Application) इस्लामी धर्म-विद्वानों द्वारा, मूलभूत आदर्शों व नियमों के अन्तर्गत (अर्थात् क़ुरआन और हदीस के अनुसार) किए जा सकते हैं। शरीअत पूरे विश्व के लिए और सदा के लिए एक ही है।

मानव-समानता


इस्लाम तमाम इन्सानों को एक ही माता पिता (आदम और हौवा) की संतान क़रार देकर, सब में बराबरी का एलान करता है। वह कहता है कि:

{يَاأَيُّهَا النَّاسُ إِنَّا خَلَقْنَاكُمْ مِنْ ذَكَرٍ وَأُنْثَى وَجَعَلْنَاكُمْ شُعُوبًا وَقَبَائِلَ لِتَعَارَفُوا إِنَّ أَكْرَمَكُمْ عِنْدَ اللَّهِ أَتْقَاكُمْ } [الحجرات: 13]

 रंग, नस्ल, बिरादरी, क़बीले का फ़र्क़ तो पहचान के लिए है न कि ऊंच-नीच, छुआ-छूत के लिए। कोई बड़ा है, सम्मानीय और आदर्णीय तो केवल ईशपरायणता के आधार पर। (क़ुरआन 49:13)

मानवाधिकार

क़ुरआन की सैकड़ों आयतों और हज़ारों हदीसों में मानवाधिकार संबंधी शिक्षाएं, नियम, आदेश-निर्देश और क़ानून दिए गए हैं। माता-पिता के अधिकार, संतान के अधिकार, नारी के अधिकार, पति-पत्नी के अधिकार, रिश्तेदारों के अधिकार, पड़ोसियों के अधिकार, मालिक-नौकर के अधिकार, अनाथों के अधिकार, विधवाओं के अधिकार, मुसाफ़िरों के अधिकार, सहयात्रियों के अधिकार, बड़ों और बच्चों के अधिकार, निर्धनों, वंचितों, बीमारों, बूढ़ों और पशु-पक्षियों के अधिकार आदि। इस्लाम की विशेषता है कि वह अधिकारों को कर्तव्यों से जोड़ता है और अधिकार के साथ-साथ कर्तव्य भी सुनिश्चित करता है।

राजनीति


राजनैतिक व्यवस्था मनुष्य, समाज एवं मानव-जीवन पर असाधारण प्रभाव डालती है। इसलिए इस्लाम ने इसे यथोचित स्थान दिया है। इस्लाम बादशाहत का भी विरोधी है और तानाशाही (Dictatorship) का भी। इस्लाम गणतांत्रिक व्यवस्था का आवाहक है लेकिन इसकी यह व्यवस्था वर्तमान में प्रचलित उस गणतांत्रिक व्यवस्था से कुछ भिन्न है जिसमें से इन्सानों के स्रष्टा, स्वामी, प्रभु, तत्वदर्शी, कृपाशील, दयावान, न्यायप्रद, सर्वबुद्धिमान ईश्वर को निकाल बाहर किया गया है। उसकी सत्ता पर जमहूर (बहुमत) विराजमान हो गए हैं। उसे क़ानूनसाज़ी के पद से हटा कर मनुष्य स्वयं क़ानूनसाज़ बन बैठा है जो पक्षपातरहित, दोषरहित और त्रुटिरहित नहीं हो सकता।

इस्लाम अस्ल सत्ताधारी (Sovereign Authority) और क़ानूनसाज़ ईश्वर को मानता है। जमहूर (बहुमत) की हैसियत ईश्वर-प्रदत्त क़ानून को लागू करने वाले की है। जो व्यक्ति सत्तारूढ़ होने का दावा करे, इस्लाम उसके हुक्मरां होने की वैधता को रद्द कर देता है। हुक्मरां का नाम जनता ख़ुद सुझाएगी और जनता के बहुसंख्यक वोट से उसका चयन होगा। हर स्तर का हुक्मरां (प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति भी) साधारण नागरिकों की तरह इस्लामी न्यायालय को जवाबदेह (Accountable) होगा। किसी भी अपराध की सज़ा उसके लिए भी वही और उतनी होगी जो और जितनी आम आदमी के लिए इस्लामी शरीअत (क़ानून-व्यवस्था) ने निश्चित कर दी है और उसके लिए अलग से किसी लोकपाल की आवश्यकता नहीं होगी।

अर्थव्यवस्था

इस्लाम सही मायने में एक उत्कृष्ट व सम्पूर्ण कल्याणकारी राज्य व्यवस्था का स्थापक है। इसमें पूंजीवाद और साम्यवाद की अतियों (Extremes) के बजाय एक संतुलित अर्थव्यवस्था स्थापित होती है। यह व्यवस्था न तो पूंजीपतियों को जनता और शासन-तंत्र का शोषण करने देती है न शासन को धनवानों, उद्योगपतियों, किसानों, कामगरों का शोषण। ये बेलगाम शक्ति न क़ानूनसाज़ों को देती है, न शासक वर्ग को, न कार्यपालिका को, न न्यायपालिका को, न जनता को, न पूंजीपतियों, उद्योगपतियों, ज़मींदारों, किसानों, कामगारों और ब्यूरोक्रेसी को।

इस्लाम ब्याज-आधारित आर्थिक शोषण तंत्र को जड़ से ही उखाड़ देता है। यह नागरिकों के बीच राष्ट्रीय धन के न्यायपूर्ण व संतुलित वितरण का प्रावधान करता है। ब्याजीय व्यवस्था के तहत करोड़ों जनसाधारण का धन खिंच-खिंचकर कुछ लोगों, बैंकों, बीमा कम्पनियों, वित्तीय संस्थानों (Financial Institutions) और कार्पोरेट हाउसों की मुट्ठी में बन्द हो जाता है। इस्लाम इसका विरोध करता है। इस्लामी अर्थ व्यवस्था में क़र्ज़ के बोझ से लदे हज़ारों किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर नहीं होना पड़ता और न ही आर्थिक मंदी के कारण करोड़ों लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ता। इस में आर्थिक-वर्ग-संघर्ष की गुंजाइश नहीं होती। ज़कात के अनिवार्य, धन-दान, सदक़ात के आम धन-दान द्वारा धनवानों के पास से धन निकाल कर सीधे ग़रीबों के पास उनकी समृद्धि व आवश्यकतापूर्ती के लिए निरंतर पहुंचता रहता है।

 

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