इस मान्यता के अनुसार वर्तमान जगत मे जितने भी प्राणी हैं उन्हें दो प्रकार की योनियों मे बाँटा गया है: कर्म योनि तथा भोग योनि। मानव योनि कर्म योनि हैं। शेष योनियाँ भोग योनि की श्रेणी मे आती हैं। वनस्पति, पशु, पक्षी, कीट आदि सब भोग योनि हैं, अर्थात पुर्व जन्म मे इनके कर्म ऐसे नहीं थे कि इन्हे वर्तमान जन्म मे उत्तम योनि अर्थात मानव शरीर प्राप्त होसके, इसलिए इन्हें इनके पूर्व कर्मों के अनुसार दन्डस्वरूप पेड़, पौधे, कुत्ते बिल्ली ,आदि पशुओं, मोर, कबूतर आदि पक्षियों के शरीर मे जन्म लेना पड़ा है। यह अपने कर्मों के फल भोग कर पुनः मानव शरीर प्राप्त कर जन्म मरण से मुक्ति हेतु प्रयास कर सकेंगे।
मनुष्य योनि मे जन्म लेने वाले प्राणी भी एक समान नहीं हैं। इनमे भी विषमताएं हैं। कोई निर्धन है कोई धनवान, कोई अंधा है कोई आँख वाला, कोई राजा है कोई रंक, कोई सुखी है कोई दुखी, कोई शुद्र है कोई ब्रह्मण, कोई रोगी है कोई स्वस्थ। यद्यपि इन्हें कर्म योनि प्राप्त है लेकिन यह विषमताएं इनके पूर्वकर्मों का ही फल हैं। ईश्वर तो केवल न्याय कर रहा है, क्योंकि अप्राधी को उसके अप्राध की सजा मिलना ही न्याय है।
आत्मा का प्रम लक्ष्य जन्मों के चक्र से छुटकारा पाकर प्रमानन्द की गति को प्राप्त करना है। इसे मोक्ष कहते हैं। सत्कर्म, आध्यात्म और सत्य ज्ञान ही मोक्ष प्राप्ति के साधन हैं। यदि हम मोक्ष के हकदार न बन सके, तो हमारे वर्तमान कर्मों के अनुसार हम को किसी न किसी योनी मे जन्म लेना ही पड़ेगा।
इस सिद्धान्त की अवैज्ञानिक्ता
पहला प्रश्न
यदि मानव योनि कर्मयोनि है बाकी सब भोगयोनि, तो संसार का आरंभ मानव से ही होना चाहिए। क्योंकि कर्म से पहले भोग का प्रश्न ही नहीं उठता है। फिर यदि इस संसार मे सबसे पहले मानव आए फिर उन्हों ने कर्म किया। और कर्मानुसार उन्होंने पुनः वनस्पति, पशु, पक्षी के रुप मे जन्म लिया। तो सवाल यह है कि संसार के प्रारंभ मे जब अभी पशु, पक्षी और वनस्पति जगत था ही नहीं, मानव जीवित कैसे रहा। क्योंकि उसका जीवन वनस्पतियों और पशुओंके बिना तो सम्भव ही नहीं। विज्ञानानुसार भी संसार का आरंभ मानव से नहीं हुआ और न ही हो सकतालथा। मानव से पहले वनस्पति जगत और पशुजगत अस्तित्व मे आगये थे। विज्ञान के अनुसार तो संसार मे मानव का आगमन सबसे आखिर मे हुआ। इस हिसाब से कर्म तथा भोग योनि पर आधारित यह सिद्धान्त अवैज्ञानिक एवं अतार्किक साबित होता है।
दोसरा प्रश्न
संसार मे आज ऐसे लोगों की संख्या कितनी है जो धर्मानुसार ईश्वरीय मार्ग पर चलते हुए सतकर्म कर रहे हैं, जवाब दस प्रतिशत से ज़्यादा नहीं हो सकता है। अब इस सिद्धांत के अनुसार जो सतकर्मी हैं वही अगले जन्म मे मानव शरीर पा सकते हैँ। उसमे कुछ तो मोक्ष प्राप्त कर अगले जन्म से छुटकारा पा जाएंगे। जब दस प्रतिशत लोग ही अगले जन्म मे मानव योनि पाने के योग्य हैं तो इस प्रकार मानव जनसंख्या लगातार कम होनी चाहिए। मगर जनसंख्या लगातार बढ़ रही है, जो इस आवागमनीय मान्यता की सत्यता पर प्रश्न चिन्ह लगा रही है।
तीसरा प्रश्न
यदि पुलिस आपको आपके घर से बिना कोई वजह बताए गिरफतार कर ले। और फिर अदालत से बिना मोकदमा चलाए आप की फाँसी का आदेश होजाए। यहाँ भी आप को आप का अपराध ना बताया जाए। और अंत मे आप को फांसी घाट पहुंचा दिया जाए। आपको आप का अपराध बताने के बजाय यह कह दिय़ा जाए कि सजा खुद अपराध का सुबूत है। यदि तुम अपराधी न होते तो तो सजा क्यों होती। क्या आप इसे न्याय कहेंगें। कदापि नहीं। फिर यदि विक्लांगता, निर्धनता, दुख और रोग आदि पूर्व जन्म के अपराधों का दण्ड हैं तो जिनको भी यह दण्ड मिल रहा है। उन्हें अपने अपराधों की स्मृति क्यों नहीं। वनस्पतियों तथा पशुओं मे विवेक और चेतना भी नहीं होती कि वह जान सकें कि उन्हें किसी प्रकार का दण्ड मिल रहा है। क्या न्यायप्रिय ईश्वर बिना जुर्म बताए सजा दे रहा है। यह तो ज़ुल्म है, और ईश्वर अपने बन्दों पर कदापि ज़ुल्म नहीं करेगा।
चौथा प्रश्न
मानव जीवन पेड़ पौधों तथा जानवरों पर आश्रित है। पर्यावरण को दुरुस्त रखने के लिए भी जीव जन्तु तथा वनस्पतियों का होना ज़रूरी है। यदि जीव जन्तु तथा वनस्पतियाँ मानव द्वारा किए जाने वाले बुरे कर्म तथा अपराध का परिणाम हैं।तो इसका अर्थ है कि संसार की जीवन व्यवस्था के लिए बुराइयां और अपराध आवश्यक हैं। तत्वदर्शिता, न्याय तथा सन्तुलन पर आधारित इस कायनात के बारे मे ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता है।
पाँचवाँ प्रश्न
क्या दीन दुखियों की मदद करना पाप है ? क्योंकि यदि उन्हें ईश्वर की ओर से दण्डित किया जा रहा है तो दण्ड प्रक्रिया मे बाधा उत्पन्न करना पाप ही होना चाहिये।
सत्यता यह है कि आवागमनीय पुनर्जन्म का सिद्दान्त न तो विज्ञानसंगत है और न ही वेदानुकुल। पण्डित सिद्धार्थ विद्यालंकार लिखते हैं
वेदों मे आवागमन का सिद्धान्त नहीँ है । इस बात पर तो मैं जूआ भी खेल सकता हूँ ( अर्थात बाज़ी भी लगा सकता हूँ)
वास्तविक्ता
यह लोक मानव के लिए प्रीक्षा स्थल है। ज्ञात जगत मे मानव एक मात्र प्राणी है जिसे कर्म की स्वतन्त्रता तथा बुद्धि विवेक प्रदान किया गया है। क्योंकि परीक्षा के लिए यह दोनो चीज़े अनिवार्य हैं। इस लिए इस जगत मे केवल मानव की प्रीक्षा हो रही है। वनस्पति, जीव जन्तु समेत समपुर्ण जगत मानव की सेवा हेतु पैदा किया गया है। संसार का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि संसार की सभी वस्तुएं मानव जीवन की किसी न किसी आवश्यक्ता की पूर्ति कर रही हैं।
यह मानव के अप्राध कर्म का परिणाम नहीं है। बल्कि ईश्वर ने इन सबको मानव जीवन के रक्षार्थ हेतु सृजा है। मानव जगत मे विषमताएं अर्थात विक्लांगता, निर्धनता रोग, दुख, कष्ट, तथा स्वस्थ शरीर, धन, बल, सुख आदि किसी पूर्व जन्म का परिणाम नहीं, अपितु विभिन्न प्रकार के परीक्षा प्रश्न हैं जो विभिन्न व्यक्तियों को उनकी जन्मजात योग्यताओं के अनुसार सर्वज्ञ ईश्वर द्वारा दिया गया है। परीक्षा हेतु मानव को कर्म की स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है। बुराई और भलाई मे से जिस मार्ग पर भी चलना चाहे चले। यद्यपि बुराई का मार्ग उसके अपने लिए घातक है। और भलाई का मार्ग उसे परम सफलता प्रदान करेगा। यदि ईश्वर मानव को उनकी इक्षा के बेग़ैर भलाई के रास्ते पर चलने के लिए बाध्य कर देता तो परीक्षा का उद्देश्य पूरा न हो पाता। कर्म की स्वतन्त्रता के कारण मनुष्य अपनी तुच्छ संसारिक कामनाओं के वश मे होकर हिंसा, अन्याय, शोषण और बुराई का रास्ता अपनाता है।
दुनिया मे यदि हिंसा,बर्बर्ता, अन्याय और बुराई मौजूद है तो इस की वजह स्वयं इनसान हैं जो परीक्षा के लिए मिली हुई अपनी आजादी का गलत इस्तेमाल करता है। ईश्वर दो कारणों से इसमे हस्तक्षेप करता रहता है। एक जब नैतिक व्यस्था का बिगाड़ अपनी चरम सीमा पर पर पहुँच जाता है तो ईश्वर व्यस्था के बिल्कुल ध्वस्त होने से बचाने के लिए अत्याचारियों की कार्य अवधि समाप्त कर उन्हें हलाक कर देता है। और उनके हाथ से सत्ता की बागडोर छीन कर दोसरों को दे देता है। कुरान मे कहा गया है।
अगर इस तरह अल्लाह इनसानो के एक गिरोह को दोसरे गिरोह के द्वारा हटाता न रहता तो धरती की व्यस्था बिगड़ जाती, लेकिन दुनिया के लोगों पर अल्लाह की बड़ी उदार कृपा है ( कि वह इस तरह बिगाड़ दूर करने का प्रबन्ध करता रहता है) अध्याय 2 आयत 251)
दोसरे ईश्वर इनसानों के कुछ कर्मों ( न कि सभी ) का परिणाम उन्हे इस दुनिया मे भी दिखाता रहता है ताकि वह होश मे आ जाएं। कुरान मे ईश्वर कहता है कि:
{ظَهَرَ الْفَسَادُ فِي الْبَرِّ وَالْبَحْرِ بِمَا كَسَبَتْ أَيْدِي النَّاسِ لِيُذِيقَهُمْ بَعْضَ الَّذِي عَمِلُوا لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُونَ} [الروم: 41]
अनुवाद: थल और जल मे लोगों के अपने हाथों की कमाई से बिगाड़ उत्पन्न हुआ ताकि ईश्वर मज़ा चखाए इनके कुछ कर्मों का, शायद वह ( अपनी हरकतों से) बाज़ आएँ । (अध्याय 30 आयत 41)
जब किसी व्यक्ति की मृत्यु का समय आ पहुँचता है तो इसका अर्थ होता है कि उसकी परीक्षा का ईश्वर द्वारा निर्धारित समय पूरा हो चुका है। अतः उसकी आतमा को शरीर से पृथक कर दिया जाता है। एक दिन ऐसा आने वाला है जब यह पूरी सृष्टि नष्ट कर दी जाएगी, क्योंकि समस्त इनसानों की परीक्षा समाप्त हो चुकी होगी। यह जगत प्रीक्षा की दृष्टि से बनाया गया है , इसलिए यह प्रीक्षा के लिए ही अनुकुल स्थान है, परिणाम के लिए नहीं। अतः इस पूरे जगत का नष्ट करके एक दोसरा जगत बनाया जाएगा जिसे प्रलोक कहते हैं।
यह परिणाम स्थल है जहाँ मनुष्यों को पुऩः जीवित करके खुदा की अदालत मे खड़ा किया जाएगा । उस परिणाम दिवस का न्यायधीश ईश्वर स्वयं होगा। हर बनदे को उसके कर्मों के हिसाब से पुरस्किरित अथवा दण्डित किया जाएगा , स्वर्ग अथवा नरक। पर्लोक का जीवन शाश्वत और अनन्त होगा। मृत्यु का प्रावधान खत्म कर दिया जाएगा। स्वर्ग अथवा नरक मानव का स्थाई ठिकाना होंगे। पाठकों को सलाह दी जाति की प्रलोक को सविस्तार और प्रमाणों सहित समझने के लिए मधुर सन्देश संगम नई दिल्ली से प्रकाशित सैयद हामिद अली की पुस्तक पर्लोक और उसके प्रमाण का अध्ययन करें।
यह लेख डा0 नफीस की किताब (ईश्वर की सही पहचान) से लिया गया है।
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