Quran Aur Gair Muslim

कुरआन और गैर-मुस्लिम

लेखक: नसीम ग़ाज़ी

कुछ संस्थाओं  का झूठा प्रचार

कुछ संस्थाओं और लोगो ने यह झूठा प्रचार किया हैं और निरन्तर किए जा रहे हैं कि कुरआन गैर-मुस्लिम को सहन नही करता। उन्हे मार डालने और जड़-मूल से खत्म कर देने की शिक्षा देता हैं।

 

कुरआन मजीद की शिक्षाएं समाज देश तथा आम इन्सानो, विशेषकर गैर-मुस्लिम के सम्बन्ध में क्या है, संक्षेप में यहां प्रस्तुत की जा रही हैं। इससे यह अंदाजा हो सकेगा कि कुरआन की शिक्षाए मानव समाज के लिए कितनी अधिक कल्याणकारी हैं और आपत्तिकर्ताओं का दुष्प्रचार कितना अन्यापूर्ण दुर्भाग्यपूर्ण और भ्रामक है।

कुरआन मजीद मे स्पष्ट रूप से कहा गया हैं:

{لَا تُفْسِدُوا فِي الْأَرْضِ} [البقرة: 11]

अर्थ: “जमीन मे बिगाड़ पैदा न करो”। (कुरआन, 2: 11)

एक अन्य स्थान पर कुरआन में हैं:

{وَابْتَغِ فِيمَا آتَاكَ اللَّهُ الدَّارَ الْآخِرَةَ وَلَا تَنْسَ نَصِيبَكَ مِنَ الدُّنْيَا وَأَحْسِنْ كَمَا أَحْسَنَ اللَّهُ إِلَيْكَ وَلَا تَبْغِ الْفَسَادَ فِي الْأَرْضِ إِنَّ اللَّهَ لَا يُحِبُّ الْمُفْسِدِينَ} [القصص: 77]

अर्थ: “जो कुछ परमेश्वर ने तुझे दिया हैं उससे परलोक का घर बनाने का इच्छुक हो और दुनिया मे अपना हिस्सा मत भूल और भलार्इ कर जैसे कि परमेश्वर ने तेरे साथ भलार्इ की हैं और जमीन मे बिगाड़ व फसाद पैदा करनेवालों को पसन्द नही करता”। (कुरआन, 28 : 77)

कुरआन मे एक जगह र्इशदूत के द्वारा कहलाया गया:

{وَيَاقَوْمِ أَوْفُوا الْمِكْيَالَ وَالْمِيزَانَ بِالْقِسْطِ وَلَا تَبْخَسُوا النَّاسَ أَشْيَاءَهُمْ وَلَا تَعْثَوْا فِي الْأَرْضِ مُفْسِدِينَ} [هود: 85]

 अर्थ:  “(र्इशदूत ने कहा:) ऐ मेरी कौम के लोगो! न्याय के साथ ठीक-ठीक पूरा नापों और तौलों और लोगो को उनकी चीजों मे घाटा मत दो और जमीन मे बिगाड़ व फसाद न फैलाते फिरो।” (कुरआन, 11 : 85)

कुरआन मे एक जगह हैं:

{لْكَ الدَّارُ الْآخِرَةُ نَجْعَلُهَا لِلَّذِينَ لَا يُرِيدُونَ عُلُوًّا فِي الْأَرْضِ وَلَا فَسَادًا وَالْعَاقِبَةُ لِلْمُتَّقِينَ (83) مَنْ جَاءَ بِالْحَسَنَةِ فَلَهُ خَيْرٌ مِنْهَا وَمَنْ جَاءَ بِالسَّيِّئَةِ فَلَا يُجْزَى الَّذِينَ عَمِلُوا السَّيِّئَاتِ إِلَّا مَا كَانُوا يَعْمَلُونَ} [القصص: 83، 84]

अर्थ: “वह परलोक का घर हैं जिसे हम उन लोगो को देंगे जो जमीन में अपनी बड़ार्इ नही चाहते और न बिगाड़ पैदा करना चाहते हैं। और कामयाबी तो परहेजगारी और र्इशभय रखनेवाले लोगो के लिए हैं”।  (कुरआन, 28 : 83)

कुरआन ने दुश्मनों तक से न्याय और इन्साफ करने का आदेश दिया है:

कुरआन कहता है:

{يَاأَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُونُوا قَوَّامِينَ لِلَّهِ شُهَدَاءَ بِالْقِسْطِ وَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَنَآنُ قَوْمٍ عَلَى أَلَّا تَعْدِلُوا اعْدِلُوا هُوَ أَقْرَبُ لِلتَّقْوَى وَاتَّقُوا اللَّهَ إِنَّ اللَّهَ خَبِيرٌ بِمَا تَعْمَلُونَ} [المائدة: 8]

अर्थ: “हे र्इमानवालो। परमेश्वर के लिए सत्य पर जमे रहनेवाले, न्याय की गवाही देनेवाले बनो। किसी कौम की दुश्मनी तुम्हें इस बात पर उद्यत न कर दे कि तुम न्याय का दामन छोड़ दो । तुम्हे चाहिए कि हर दशा में न्याय करों। यही र्इशभय और धर्मपरायणता से मेल खाती बात हैं। परमेशवर का भय रखों, जो कुछ तुम करते हो निस्संदेह परमेश्वर को उसकी खबर हैं”। (कुरआन, 5 : 8)

कुरआन मे एक जगह परमेश्वर ने यह आदेश दिया:

{وَلَا تَسْتَوِي الْحَسَنَةُ وَلَا السَّيِّئَةُ ادْفَعْ بِالَّتِي هِيَ أَحْسَنُ فَإِذَا الَّذِي بَيْنَكَ وَبَيْنَهُ عَدَاوَةٌ كَأَنَّهُ وَلِيٌّ حَمِيمٌ} [فصلت: 34]

अर्थ: “भलार्इ और बुरार्इ बराबर नही हुआ करती। तुम्हें चाहिए कि (बुरार्इ का) जवाब भले तरीकें से दो (इस आचरण के बाद) तुम देखोंगे कि जिससे तुम्हारी दुश्मनी थी वह तुम्हारा आत्मीय मित्र बन गया हैं”।  (कुरआन 41 : 34)

भले कामों में गैर-मुस्लिमों के साथ सहयोग

इस सम्बन्ध मे कुरआन में परमेश्वर का आदेश है:

{وَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَنَآنُ قَوْمٍ أَنْ صَدُّوكُمْ عَنِ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ أَنْ تَعْتَدُوا وَتَعَاوَنُوا عَلَى الْبِرِّ وَالتَّقْوَى وَلَا تَعَاوَنُوا عَلَى الْإِثْمِ وَالْعُدْوَانِ وَاتَّقُوا اللَّهَ إِنَّ اللَّهَ شَدِيدُ الْعِقَابِ} [المائدة: 2]

अर्थ: “ऐसा कदापि न हो कि किसी गिरोह की दुश्मनी कि उन्होने तुम्हें प्रतिष्ठित मस्जिद (काबा) से रोका था, तुम्हें इस बात पर उभारे कि तुम उनके साथ अत्याचार व अन्याय करने लगो। भलार्इ और र्इशपरायणता के कामों में तुम सहयोग दो। लेकिन पाप और अत्याचारपूर्ण कामों में सहयोग न दो। परमेश्वर से डरते रहो, निस्सन्देह परमेश्वर (अवज्ञा पर) सजा देने में अत्यन्त कठोर है”। (कुरआन 5: 2)

कुुरआन मजीद मे सारे ही इन्सानों के साथ धर्म और समुदाय का भेद किए बिना न्याय करने, उनके साथ उपकार और सदभाव का व्यवहार करने, जमीन मे बिगाड़ और उपद्रव न फैलाने और सारे ही इन्सानों की जान और माल का आदर करने के इसी प्रकार के आदेश जगह-जगह दिए हैं।

कुरआन मजीद मे हमारे स्त्रटा और प्रभु ने यह कल्याणकारी सिद्धान्त भी लोगो को दिया है:

एक जगह पर क़ुरआन में आया है:

{مَنْ قَتَلَ نَفْسًا بِغَيْرِ نَفْسٍ أَوْ فَسَادٍ فِي الْأَرْضِ فَكَأَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَ جَمِيعًا وَمَنْ أَحْيَاهَا فَكَأَنَّمَا أَحْيَا النَّاسَ جَمِيعًا } [المائدة: 32]

अर्थ:“जिसने किसी व्यक्ति की किसी के खून का बदला लेने या धरती मे उपद्रव और तबाही फैलाने के सिवा किसी और कारण से हत्या की मानो उसने सारे ही इन्सानों की हत्या कर डाली। और जिसने उसे जीवन प्रदान किया उसने सारे ही इन्सानों को जीवन प्रदान किया”।  (कुरआन 5: 32)

मृत्युदंड के बारे में क़ुरआन का नियम:

कुरआन ने सदा के लिए यह नियम बना दिया कि किसी भी इन्सान को चाहे उसका सम्बन्ध किसी भी या समुदाय से हो मृत्युदंड नही दिया जा सकता। हां! सिर्फ दो तरह के लोगो के साथ ऐसा किया जा सकता हैं:

एक हत्यारे को मृत्युदंड दिया जा सकता हैं। दूसरे उस व्यक्ति को मृत्युदंड दिया जा सकता हैं जो समाज या देश की शान्ति और सुरक्षा भंग करने पर तुला हो और उसने धरती मे तबाही मचा रखी हो।

कुरआन की इस आयत मे यह भी स्पष्ट रूप से बता दिया गया हैं कि किसी व्यक्ति की अकारण और अन्यापूर्ण हत्या एक व्यक्ति की हत्या नही, बल्कि वह सम्पूर्ण मानव-जाति की हत्या करने जैसी हैं। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के प्राण बचाना सम्पूर्ण मानव-जाति के प्राणों की रक्षा करना है।

कितनी उच्च और कल्याणकारी हैं यह शिक्षा। इस पर तो पूरी मानवता को कुरआन मजीद का आभारी होना चाहिए।

गैर-मुस्लिम रिश्तेदारों से मेल-जोल और कुरआन

कुरआन मजीद की इस आयत पर भी कुछ लोग आपत्ति करते है, जिसमें कहा गया है:

{يَاأَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَتَّخِذُوا آبَاءَكُمْ وَإِخْوَانَكُمْ أَوْلِيَاءَ إِنِ اسْتَحَبُّوا الْكُفْرَ عَلَى الْإِيمَانِ وَمَنْ يَتَوَلَّهُمْ مِنْكُمْ فَأُولَئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ} [التوبة: 23]

अर्थ: “र्इमानवालो! अपने बापो और भार्इयों को अपना संरक्षक मित्र न बनाओ, अगर वे र्इमान के मुकाबले मे कुफ्र को पसन्द करें”। (कुरआन, 9 : 23)

यह आपत्ति भी पृष्ठभूमि और सन्दर्भ का लिहाज न करने और बात को न समझने के कारण की गर्इ हैं। अगर सन्दर्भ पर तनिक भी विचार किया जाए तो यह बात आसानी से समझ मे आ सकती है कि यहां भी परिस्थितियां इस्लाम और उसके दुश्मनों के बीच सख्त संघर्ष की हैं। इस्लाम के दुश्मन मुसलमानों और इस्लाम को जड़-बुनियाद से उखाड़ देने को तत्पर है और गैर-मुस्लिम दुश्मन अपने मुसलमान रिश्तेदारों से मेलजोल करके इस्लाम के विरूद्ध साजिशो की स्कीमों बना रहे हैं। ऐसी गंभीर परिस्थितियों मे जबकि इस्लाम और मुसलमानों का अस्तित्व खतरे मे है, परमेश्वर ने मुसलमानों को चौकन्ना और सावधान करते हुए यह आदेश दिया हैं कि  वे अपने उन रिश्तेदारो तक को, जो इस्लाम की दुश्मनी पर तुले हुए हैं, अपना राजदार और संरक्षक न बनाएं और इस तरह दुश्मनों की साजिशों को असफल कर दें।

ऐसी गंभीर और आपात परिस्थितियों मे कुरआन का यह निर्देश कितना सही और बुद्धिसंगत है इससे कोर्इ इनकार नही हर सकता। ऐसी परिस्थितियों मे इसी प्रकार आदेश और निर्देश पूरी दुनिया मे दिए जाते हैं और उनपर किसी को कभी कोर्इ आपत्ति नही होती। स्वंय हमारे देश मे अगर समाज और देश के किसी दुश्मन, किसी अपराधी और आतंकवादी को उसका कोर्इ दोस्त, नातेदार और रिश्तेदार संरक्षक और सहयोगी बनाता हैं या उसे शरण देता है तो उस शरण देनेवाले को भी अपराधी ठहराया जाता हैं और उसे अपराध मे मददगार समझा जाता हैं। कुरआन मजीद का यह आदेश बिलकुल इसी प्रकार का आदेश हैं। कुरआन परमेश्वर की ओर से सम्पूर्ण मानवजाति के लिए पूरे जीवन का संविधान हैं। शान्ति और सुरक्षा और सुख-चैन की ध्वजावाहक किसी व्यवस्था के लिए इस आदेश का कितना महत्व है इसे वे लोग अच्छी तरह समझ सकते हैं जिनके कंधों पर समाज और देश की सुरक्षा और शान्ति का दात्यित्व होता हैं।

कुरआन मजीद ने तो स्वयं इस तरह की गलतफहमी और आपत्ति को दूर करते हुए एलान कर दिया हैं कि:

{يَاأَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَتَّخِذُوا آبَاءَكُمْ وَإِخْوَانَكُمْ أَوْلِيَاءَ إِنِ اسْتَحَبُّوا الْكُفْرَ عَلَى الْإِيمَانِ وَمَنْ يَتَوَلَّهُمْ مِنْكُمْ فَأُولَئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ} [التوبة: 23]

अर्थ: “परमेश्वर तुम्हें केवल उन लोगो से दोस्ती करने से रोकता हैं जिन्होने तुमसे धर्म के सम्बन्ध मे युद्ध किया और तुम्हें तुम्हारे घरो से निकाला और तुम्हारे निकाले जाने मदद की”। (कुरआन 60 : 9)

कुरआन की इस हिदायत की मौजूदगी में क्या यह आपत्ति सही हो सकती है
कि वह गैर-मुस्लिम रिश्तेदारों से सम्बन्ध और मेलजोल रखने को मना करता हैं?

सामान्य परिस्थितियों मे गैर-मुस्लिम मां-बाप और अन्य गैर-मुस्लिम रिश्तेदारों के बारे मे कुरआन का आदेश क्या हैं?

यह बात कुरआन मे सुनहरे शब्दों मे मौजूद हैं। परमेश्वर कहता हैं:

{ وَوَصَّيْنَا الْإِنْسَانَ بِوَالِدَيْهِ حَمَلَتْهُ أُمُّهُ وَهْنًا عَلَى وَهْنٍ وَفِصَالُهُ فِي عَامَيْنِ أَنِ اشْكُرْ لِي وَلِوَالِدَيْكَ إِلَيَّ الْمَصِيرُ (14) وَإِنْ جَاهَدَاكَ عَلَى أَنْ تُشْرِكَ بِي مَا لَيْسَ لَكَ بِهِ عِلْمٌ فَلَا تُطِعْهُمَا وَصَاحِبْهُمَا فِي الدُّنْيَا مَعْرُوفًا وَاتَّبِعْ سَبِيلَ مَنْ أَنَابَ إِلَيَّ ثُمَّ إِلَيَّ مَرْجِعُكُمْ فَأُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُونَ} [لقمان: 14، 15]

अर्थ: “और हमने इन्सान को उसके मां-बाप में निर्देश दिया हैं- उसकी मां ने कष्ट पर कष्ट उठाकर उसे पेट में रखा और दो साल उसे दूध छूटने मे लगे-कि मेरे कृतज्ञ हो और अपने मां-बाप के भी। (और यह बात याद रखो कि तुम्हें मरने के बाद) मेरी तरफ ही लौटकर आना हैं। (अगर तुमने इस आदेश पर अमल किया तो तुम्हें इसका अच्छा बदला दिया जाएगा और अगर इसपर अमल न किया तो सजा मिलेगी।) लेकिन अगर वे (मां-बाप) तुझपर दबाव डाले कि तू किसी को मेरे साथ साझी ठहराए, जिसका तुझे ज्ञान तो (इस मामले मे) उनकी बात मत मानना, लेकिन दुनिया में उनके साथ सद्व्यवहार करते रहना और अनुसरण उस व्यक्ति के रास्ते का करना जो मेरी ओर उन्मुख हो। (इस बात को हमेशा याद रखना कि) तुम सबको मेरी ओर ही पलटना हैं, फिर मैं तुम्हें बता दूंगा जो कुछ तुम करते रहे होगे”। (कुरआन, 31:14-15)

कुरआन की इस शिक्षा पर विचार करें और निर्णय करें कि क्या मां-बाप के सम्बन्ध मे इससे ज्यादा उचित बात कोर्इ दूसरी हो सकता है? कुरआन की इन आयतों में प्रत्येक मनुष्य को अपने मां-बाप के साथ सदव्यवहार और कृतज्ञता का रवैया अपनाने की शिक्षा दी गर्इ हैं। चाहे उसके मां-बाप मुस्लिम हो या गैर-मुस्लिम और कृतज्ञता के इस रवैये को अपनाने का जो कारण बताया गया हैं, वह कारण मुस्लिम और गैर-मुस्लिम दोनो मां-बाप के साथ समान हैं। हर मॉ अपनी औलाद को कष्ट और परेशानियां उठाकर पेट में रखती है, जन्म देती और पालती-पोसती हैं। इसलिए वह अपनी औलाद की ओर से कृतज्ञता और सद्व्यवहार की वैद्य अधिकारी हैं, वाहे मां मुस्लिम हो या गैर-मुस्लिम और इसी लिए कुरआन ने औलाद को उनके साथ सदव्यवहार करने का आदेश दिया हैं।

हां! कुरआन ने यह बात भी स्पष्ट कर दी हैं कि अगर तुम्हारे यही उपकारी मॉ-बाप तुम्हें गलत बातों की शिक्षा दें या गलत कामों पर उभारे तो इस मामले में उनकी बात नही माननी हैं। चाहे परमेश्वर के साथ किसी को साझी ठहराने की शिक्षा हो या अन्य गलत काम। अलबत्ता उनके साथ तुम्हारा व्यवहार प्रत्येक दशा में आदर और शिष्टाचार का होना चाहिए और तुम्हें सदैव उनके साथ सद्व्यवहार करते रहना चाहिए।

इतनी उचित और बुद्धिसंगत बात से इनकार कौन कर सकता हैं? दुनिया के हर समाज और हर देश मे इस शिक्षा को मान्यता प्राप्त है, इसलिए कि दुनिया के किसी कानून में भी मां-बाप की गलत बातों को मानने को वैधता प्रदान नही की गर्इ हैं।

कुरआन  पर आपत्ति करने वाले हिन्दू भाई प्रहलाद जी की कथा पर विचार करें

कुरआन की इस बात पर आपत्ति करने वाले हमारे ये हिन्दू भार्इ अगर प्रहलाद जी की कथा पर विचार करते तो यह तथ्य उनपर और स्पष्ट हो जाता। प्रहलाद जी का पिता हिरण्कश्यप अपने को र्इश्वर कहलावा था और उसकी प्रजा मे सभी लोग उसे र्इश्वर समझते थे। लेकिन प्रहलाद जी ने अपने पिता की यह बात मानने से साफ इन्कार कर दिया। उनके पिता ने इस अवज्ञा और दुस्साहस पर प्रहलाद जी को तरह-तरह की यातनाएं दी। उस र्इशभक्त ने यातानाएं झेली, लेकिन अपने पिता को र्इश्वर मानते से इन्कार कर दिया। र्इश्वर होने का झूठा दावा करनेवालों उस पिता ने अपने पुत्र प्रहलाद को अन्तत: आग मे झोकने का आदेश दे दिया। प्रहलाद ने इस आदेश की तनिक भी परवाह नही की और अपने पिता की इस गलत बात को स्वीकार नही किया  िकवह उसे र्इश्वर समझे।

इसी घटना की याद मे हिन्दू भार्इ हर साल होली का त्यौहार मनाते है, अगर कुरआन ने यही शिक्षा मुसलमानों को दी हैं तो हिन्दू धर्म का दावा करने वाले ये लोग कुरआन पर आपत्ति करते है, कितने आश्चर्य की बात हैं।

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