लेखक: डा0 मुहम्मद अहमद
हजरत मुहम्मद (सल्ल0) सबके लिए’’ मात्र एक आकषर्क नारा और मुसलमानों का दावा नही हैं, बल्कि एक वास्तविक, व्यावहारिक व ऐतिहासिक तथ्य है। ‘सबके लिए’ का स्पष्ट अर्थ हैं ‘सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सर्वमान्य होना’। सार्वभौमिकता के परिप्रेक्ष्य में, हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के, भारतवासियों का भी पैगम्बर होने की धारणा तकाजा करती हैं कि आप (सल्ल0) के समकालीन भारत पर एक संक्षिप्त दृष्टि अवश्य डाली जाए, और चूकि आप की पैगम्बरी का ध्येय एवं आप (सल्ल0) के र्इशदूतत्व का लक्ष्य मानव-व्यक्तित्व, मानव-समाज के आध्यात्मिक व सांसारिक हर क्षेत्र मे सुधार, परिवर्तन, निखार व क्रान्ति लाना था, इसलिए यह दृष्टि भारतीय समाज के राजनैतिक, सामाजिक व धार्मिक सभी पहलुओं पर डाली जाए।
राजनैतिक परिस्थिति
हजरत मुहम्मद (सल्ल0) द्वारा अरब प्रायद्वीप में इस्लाम के पुन: अभ्युदय का काल, सातवी शताब्दी र्इसवी का प्रारंभिक काल हैं। भारत, ‘भारतवर्ष’ या ‘हिन्दुस्तान’ नामक एक देश न था, न ही इसका कोर्इ एक शासक। अलग-अलग क्षेत्रों में ‘पल्लव’ और ‘चालुक्य’ आदि वंशो के शासकों-हर्ष वर्धन, महेन्द्र वर्मन और पुलकेशिन का राज्य था। इनमें सत्ता व शासन के लिए बराबर लड़ाइयॉं होती रहती थी। पराजय के पुनर्विजय-प्राप्ति के लिए वाह्य-देशों से सैनिक सहायता भी ली जाती थी। सत्ताधारी वर्ग के धर्म या धर्म-परिवर्तन का व्यापक प्रभाव शासित वर्ग ग्रहण करता था।
धार्मिक परिस्थिति
उत्तर-पश्चिमी प्रान्त में बौद्ध धर्म का हास हो रहा था। कश्मीर से मथुरा तक और मध्य-प्रान्त, पूर्वी तथा दक्षिणी प्रान्त में ब्रहम्मणों का प्रभाव बढ़ रहा था। जैन धर्म प्रभावहीन हो चुका था और जैनियों ने ब्राहम्मणों से समझौता करके उनका न केवल राजनैतिक व सांसारिक प्रभुत्व स्वीकार कर लिया था, बल्कि बड़े-बड़े लोगो का धर्म-परिवर्तन भी कराया जाने लगा था। जैन धर्म के अनुयायी महेन्द्र वर्मन (शासन काल 600-630 र्इ0) को संत अप्पर ने शैव धर्म ग्रहण करा दिया था जो शंकर का पुजारी बना और उसने महाबलिपुरम के प्रसिद्ध मन्दिर समेत कर्इ शैव-मन्दिर बनवाए, और जैन धर्म का बचा-खुचा अस्तित्व भी लगभग समाप्त हो गया।
दूसरी ओर हासोन्मुख बौद्ध धर्म पर ब्राहम्मणवाद का ऐसा प्रबल प्रभाव पड़ा कि बौद्ध धर्म के मूर्तिपूजा-विरोधी अनुयायी, मूर्तिपूजा को अपने धर्म का खास अंग बना बैठे। बौद्ध जहॉ जाते वहां गौतम बुद्ध की मूर्तिपूजा न करने की मूल-शिक्षा के विरूद्ध उनकी मूर्तियों स्थापित करते और उनकी पूजा-अर्चना करने लगते। एक प्रसिद्ध हिन्दू चिन्तक, सी0वी0 वैद्य के अनुसार, ‘‘इस युग में हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म दोनो ही मूर्तिपूजा के समर्थक थे, बल्कि शायद बौद्ध धर्म मूर्तिपूजा में हिन्दू धर्म से भी आगे बढ़ गया था-।’’
हिन्दू धर्म में वेदो द्वारा स्थापित एकेश्वाद, ऋग्वेद काल के अन्त तक पहुॅंचते-पहुॅचते ‘अनेक-देवतावादी एकेश्वरवाद’ में बदल चुका था। कुछ विद्वानों के अनुसार, वैदिक देवताओं की संख्या 33 तक और कुछ के अनुसार 3339 तक हो गर्इ थी जो पौराणिक काल में बढ़कर 33 करोड़ तक पहुॅच गर्इ थी, देवताओं की मूर्तियों के साथ-साथ पशु, नक्षत्र, नदी आदि भी पूज्य हो गए थें। हर्ष वर्धन के काल में शिवलिंग की पूजा आम हो गर्इ थी और विष्णु के अनेक अवतारो की मूर्तिपूजा प्रचलित हो गर्इ थी।
सामाजिक परिस्थिति
हर्ष वर्धन के पूर्वजों ने समाज में वर्ण-व्यवस्था की जड़ फिर से मजबूत करके ऊॅंचा-नीच श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ और छूतछात आदि को जो बढ़ावा दिया था, वह हर्ष वर्धन काल (606-647र्इ0) में बराबर जारी रहा। इस काल मे ंभारत की यात्रा करनेवाला चीनी यात्री फाहयान, लिखता है: शुद्र तो गए-गुजरे हैं ही, लेकिन शुद्रों में चांडाल सबसे अधम समझे जाते थे। वे राजज्ञानुसार, शहर में प्रवेश करते समय लकड़ी से ढोल बजाकर अपने आने की सूचना देते थे, ताकि लोग हट जाए और उनका स्पर्श बचाकर चले।’’ सातवीं सदी के एक अन्य चीनी भारत-यात्री ‘हवेनसांग’ के अनुसार, ‘‘ शुद्रों के पश्चात, पंचम जाति के लोगो-कसाइयों, मछुआरो, जल्लादो और भंगियों के मकानों पर अलग-अलग निशान बने रहते थें और ये लोग नगर के बाहर रहते थे, उच्च वर्ग का कोर्इ आदमी रास्ते में मिल जाता तो ये ऑखें बचाकर बार्इ ओर को चले जाते और जल्दी से अपने घर में घुस जाते थे।’’
इस काल मे स्त्रियों की दशा अति दयनीय था। रोमिला थापर के अनुसार, ‘‘……………..उत्तर भारत के कर्इ स्थानों पर सती प्रथा जोर पकड़ती जा रही थी तो दखिण भारत में देवदासी प्रथा।…………….अनेक मंदिरों की देव-दासियां निर्लज्जतापूर्वक शोषित वैश्याएं बन गर्इ और मन्दिर के अधिकारी उनकी आय प्राप्त करने लगे।’’
इंसानों को अन्य जीवन-सामग्री की तरह बेचने-खरीदनें और दास या दासी बनाने की प्रथा प्रचलित थी। डा0 रोमिला थापर के अनुसार, ‘‘………………पुरूष और स्त्रियां या तो स्वयं को बेच देते थे या कोर्इ तीसरा व्यक्ति उन्हे बेच देता था, विशेषकर निर्धनता और अकाल की दशा में ऐसे लोग मन्दिर को बेच दिए जाते थे………..।’’
भारत और अरब के संबंध
हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के काल से बहुत पहले से ही भारत और अरब के बीच व्यावसायिक संबंध कायम थे। प्रसिद्ध विद्धान और अनुसंधानकर्ता सैयद सुलैमान नदवी के शब्दों मे, ‘‘अरब व्यवसायी आज से हजारो वर्ष पूर्व भारत के तटीय क्षेत्रों मे आते-जाते थे, और वहॉ की वस्तुओं को मिस्र और ओम्मान के मार्ग से यूरोप तक पहुॅचाते थे और वहॉ की वस्तुओं को भारत के द्वीपो मे ंलाते थें। इस प्रकार के व्यावसायिक सामान को चीन और जापान तक ले जाते थें।’’
मार्कोपोलो और वास्को डि गामा के समय तक भारत का व्यवसाय अरबों के हाथ में था। भारत से सन्दल, काफूर, लौंग, जायफल, कबाबचीनी, नारियल, सोंठ अदरक, नील, अजवाइन, केला, सुपारी, रूर्इ के कपड़े, सन और बॉंस आदि चीजेंबेचने के लिए अरब ले जार्इ जाती थी।
हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के काल मे भी यह व्यापार जारी था। भारत के कुछ लोग अरब के पूर्वी तटों और समीपवर्ती इलाकों में रहते थें। अरबो से उनके संबंध अच्छे थे। उनके बीच किसी लड़ार्इ-झगड़े की घटना इतिहास मे नही मिलती। हजरत मुहम्मद (सल्ल0) और आपके साथी हिन्दुस्तान और यहॉ के लोगो के बारे में जानकारी रखते थे, और आप (सल्ल0) के पैगम्बर बनाए जाने के बाद आपके पैगाम से यहॉ के लोग भी अवगत होने लगे थे।
भारतीय और अरब समाज मे समानतायें
जिस अरब समाज मे हजरत मुहम्मद (सल्ल0) को र्इश्वर ने अपना रसूल बनाया था, उसमें और समकालीन भारतीय समाज मे अनेक समानताएॅं पार्इ जाती थी। यहॉ ऐसी ही कुछ धार्मिक व सामाजिक समानताओं का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर देने से ‘हजरत मुहम्मद सबके लिए’ की धारणा को व्यावहारिक स्तर पर समझने मे आसानी होगी।
धार्मिक समानतायें
(1) भारत एक धार्मिक भू-स्थल था। यहॉ के लोगो में एक र्इश्वर के अस्तित्व पर विश्वास था। वे उसे सृष्टि, मनुष्यों व अन्य जीवधारियों का स्रष्टा समझते थे। यही स्थिति अरब प्रायद्वीप मे थी। वहॉ के लोग एक अल्लाह के वजूद के कायल थे। अल्लाह को ही सृष्टि, मानवजाति एवं समस्त जीवों को पैदा करने वाला मानते थे। यहॉ तक कि उनके नामों-उदाहरणत: ‘अब्दुल्लाह’ (अल्लाह का बन्दा) जैसे नाम से भी वे अपने और अल्लाह के बीच मूलभूत संबंध का प्रदर्शन करते थे।
(2) अरबवासी अल्लाह के साथ दूसरों को साझीदार बना चुके थे। वे फरिश्तों, जिन्नो और पूर्वजों की मूर्तियों की पूजा करते थे। कभी एकेश्वरवाद के केन्द्र-स्वरूप बनाए गए ‘काबा’ में और उसके आस-पास, उन्होने लगभग 360 मूर्तियॉं स्थापित कर रखी थी और उनकी पूजा करते, उनके नाम पर बलि देते और उन पर चढ़ावे चढ़ावे तथा उनसे सहायता मांगते थें। मूर्तिपूजा की ठीक यही स्थिति और एक-र्इश्वर के साथ अनेकानेक देवताओं, नक्षत्रों एवं जीवधारी-अजीवधारी वस्तुओं को साझीदार बनाने का चलन भारत मे भी चरम सीमा पर था।
(3) वैदिक धर्म के साथ-साथ भारत मे बौद्ध धर्म और जैन धर्म के माननेवाले भी थे। इसी प्रकार अरब मे ‘बहुदेववादी एकेश्वरवाद’ को माननेवाले ‘मुशरिकों’ के साथ-साथ अहले-किताब अर्थात यहूदी और र्इसार्इ भी रहते थे।
(4) भारत मे तीर्थो, यज्ञो और बलि का प्रचलन था। अरब मे भी हजरत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) द्वारा स्थापित हज, उमरा और कुरबानी के बिगड़े हुए रूप प्रचलित थे।
समाजिक समानतायें
(1) स्त्री की दशा अरब मे अच्छी न थी। वह केवल काम-वासना का साधन समझी जाती थी। समाज मे उसका कोर्इ गौरवपूर्ण स्थान न था। बेटियों को किशोरावस्था मे माता-पिता द्वारा मार दिए जाने और जिन्दा दफन कर देने का रिवाज था।
(2) भारत मे भी स्त्री का यौन-शोषण होता था, देवदासी प्रथा के रूप में वेश्यावृति का प्रचलन मे भी का यौन-शोषण होता था, देवदासी प्रथा के रूप मे वेश्यावृति का प्रचलन था। तन्त्र-साधना के अन्तर्गत नारी का यौन अपमान होता था।
(3) समाज, भारत मे उच्च वर्ग और तुच्छ वर्ग मे बंटा हुआ था। शुद्रो की दशा अति दयनीय थी। दासों और दासियों के रूप मे पुरूष, स्त्री खरीदे-बेचे जाते थे। अरब समाज मे गुलामी (slavery) की प्रथा पूरे जोर पर थी। पूरूषो, स्त्रियों को अन्य जीवन-सामग्री की तरह बेचा, खरीदा और काम में लाया जाता था। गुलामों और बांदियों की दशा अत्यन्त दयनीय थी। समाज मे उनकी हैसियत बिलकुल पशुओं जैसी थी।
यह उस पूरे परिस्थिति का संक्षिप्त अवलोकन हैं जिसमें, और जिसे अरब में पूर्णतया बदलकर रख देने मे समर्थ हो जानेवाले हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) को अल्लाह ने एक सुधारक व क्रान्तिकारी पैगम्बर बनाकर भेजा था और आप (सल्ल0) केवल 21 वर्षो मे यह क्रान्ति ले आए। मानवता-उद्धार की यही वह प्रक्रिया थी जिसके दर्शन 1400 वष्र्ाीय विश्व-इतिहास मे होते हैं कि संसार के विभिन्न भागों समेत भारत में भी बड़ी जनसंख्या आप (सल्ल0) का पैगाम स्वीकार करके उसे सीने से लगाती रही और सिद्ध करती रही कि हजरत मुहम्मद (सल्ल0) सबके लिए हैं।
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