लेखक: मुहम्मद हाशिम क़ासमी बस्तवी
क़ज़ा नमाज़ कैसे अदा करें?
फ़िक़ह और मसाईल के महिरीन ने नमाज़ की क़ज़ा को दो मामलों में विभाजित किया, और उनमें से प्रत्येक मामले के अनुसार निर्णय अलग-अलग हैं, और इसे इस प्रकार समझाया गया है:
(1) किसी मजबूरी कि वजह नमाज़ का छूट जाना
किसी मजबूरी कि वजह नमाज़ के छूट जाने में कई चीजें हैं, हम उन्हें इस प्रकार समझाते हैं:
जिस मुस्लमान की फ़र्ज़ नमाज़ किसी मजबूरी कि वजह से छूट जाए वह उसे जल्दी क़ज़ा करने कोशिश करे ताकि वह जल्द ही अपनी ज़म्मेदारी छुटकारा पा जाए।
नमाज़ को भूल जाना और सो जाना क़ज़ा नमाज़ के लिए स्वीकारिक बहाने में से एक है, जिसका उलमा ने उल्लेख किया है, बशर्ते कि यह उचित सीमा से आगे न जाए, जो लापरवाही और उदारता का संकेत दे।
क़ज़ा नमाज़ को वक़्त वाली नमाज़ से पहले पढ़ना, बशर्ते कि वक़्त ख़तम न हो, और जमात का वक़्त न हो।
(2) बिना किसी मजबूरी के नामज़ क़ज़ा करना
बिना किसी बहाने के क़ज़ा नमाज़ से संबंधित मसले की व्याख्या निम्नलिखित है:
एक मुसलमान जो बिना किसी मजबूरी के जान बूझ कर नमाज़ क़ज़ा कर देता है उसे तुरंत उसकी क़ज़ा पढ़ना चाहिए, और उसे अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करने के लिए बिना किसी देरी के इसके अदा में जल्दी करनी चाहिए।
क़ज़ा नमाज़ के अदा करने के बारे में उलमा ने यह कहा है कि: मूल सिद्धांत यह है कि बुनियादी जरूरतों के इलावा किसी और वजह से नमाज़ का क़ज़ा करना उचित नहीं है जैसे: अपना दैनिक भोजन और अपने परिवार का भरण-पोषण करना, सोना, खाना, या ज़रूरी नमाज़े अदा करना।
बिना किसी मजबूरी के छूटी हुई नमाज़ों को तुरंत अदा करना ज़रूरी है, भले ही इसमें उसका सारा समय लग गया हो। यह समय पर नमाज अदा करने में नरमी और लापरवाही की दलील है।
विद्वानों का कहना है कि यदि किसी मुसलमान के लिए एक बार में सारी छूटी हुई नमाज़ों को पढ़ना मुश्किल हो तो उसके लिए बेहतर यह है हर फ़र्ज़ नमाज़ के बाद या पहले एक क़ज़ा नमाज़ को पढ़े, इस तरह से धीरे धीरे उसके जिम्मे से सारी नमाज़ें खत्म हो जायें गी,
काम काज और लिखने पढ़ने में बिजी होना, या इस तरह के दुसरे काम ऐसे बहाने नहीं हैं जो नमाज़ को उसके समय से देरी करने की अनुमति देते है, अल्लाह ताला ने पवित्र कुरान में ऐसे लोगों की प्रशंसा की है, जो काम काज की व्यस्तता के बावजूद अल्लाह के ज़िक्र और नमाज़ से विचलित नहीं होते हैं, अल्लाह ताला फरमाते है:
رِجَالٌ لَا تُلْهِيهِمْ تِجَارَةٌ وَلَا بَيْعٌ عَنْ ذِكْرِ اللَّهِ وَإِقَامِ الصَّلَاةِ وَإِيتَاءِ الزَّكَاةِ يَخَافُونَ يَوْمًا تَتَقَلَّبُ فِيهِ الْقُلُوبُ وَالْأَبْصَارُ (النور: 37)
अनुवाद: यह ऐसे लोग हैं जिनको तिजारत, बिक्क्री और लेन देन अल्लाह की याद, और नमाज़ और ज़कात से विचलित नहीं करते है, यह परलय और क़यामत के दिन से डरते हैं, जिस दिन निगाहें और दिल पलट जाएंगे।
क़ज़ा नमाज़ का हुक्म
क़ज़ा नमाज़ के बारे में उल्मा ने कई नियम बताए हैं, जिनका विवरण इस प्रकार है:
एक मुसलमान जिसकी नमाज़ें छूट जाती हैं और वह उन्हें समय पर नमाज़ नहीं पढ़ता, तो यह नमाज़ें उसके ज़िम्मे वाजबी क़र्ज़ है, जिसको हर हालत में अदा करना अनिवार्य है, जब तक वह उन्हें न पढ़ ले उसके ज़िम्मे से खत्म नहीं होता है, सही हदीसों ज़िम्मे से सुबुकदोशी के बारे मेंनिम्नलिखित शब्द आए हैं:
عَنِ ابْنِ عَبَّاسٍ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُمَا، قَالَ: أَتَى رَجُلٌ النَّبِيَّ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَقَالَ لَهُ: إِنَّ أُخْتِي قَدْ نَذَرَتْ أَنْ تَحُجَّ، وَإِنَّهَا مَاتَتْ، فَقَالَ النَّبِيُّ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ: «لَوْ كَانَ عَلَيْهَا دَيْنٌ أَكُنْتَ قَاضِيَهُ» قَالَ: نَعَمْ، قَالَ: «فَاقْضِ اللَّهَ، فَهُوَ أَحَقُّ بِالقَضَاءِ». (صحيح البخاري: 6699، صحيح مسلم: 1334)
अनुवाद: हज़रात इब्ने अब्बास से रिवायत है कहते हैं कि: एक आदमी रसुलुललाह सल्लल्लाहु अलैहि वास्सलम के पास एक आदमी आया, उससे कहा: मेरी बहन ने हज के लिए जाने की कसम खाई है, और वह मर गई, पैगंबर ने कहा: अगर कोई कर्ज तुम पर हो तो क्या तुम उसको अदा नहीं करो गे? उसने कहा क्यूँ नहीं, आप ने फ़रमाया: “भगवान का क़र्ज़ अदा करने के ज़्यादा योग्य है।” (सहीह अल-बुखारी: 6699, सहीह मुस्लिम: 1334)
क़ज़ा नामज़ पढ़ने के बारे में एक और हदीस में आया है:
عَنْ أَنَسِ بْنِ مَالِكٍ، أَنَّ رَسُولَ اللهِ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، قَالَ: “مَنْ نَسِيَ صَلَاةً فَلْيُصَلِّهَا إِذَا ذَكَرَهَا، لَا كَفَّارَةَ لَهَا إِلَّا ذَلِكَ”. (رواه البخاري في صحيحه: 597)، ومسلم في صحيحه: (684).
अनुवाद: हज़रत अनस से रिवायत है कहते हैं: रसुलुललाह सल्लल्लाहु अलैहि वास्सलम ने फ़रमाया: “जो कोई नमाज़ पढ़ना भूल जाए तो याद आने पर उसको पढ़ ले क्योंकि उसके लिए कोई और अतिरिक्त प्रायश्चित नहीं है”। (सहीह अल-बुखारी: 597, सहीह मुस्लिम: 684)
क़ज़ा नामज़ के पढ़ने का समय
क़ज़ा नमाज़ को किसी वक़्त भी पढ़ सकते हैं, हाँ मकरूह वक़्त (सूरज निकलने के वक़्त, ज़वाल के वक़्त, सूरज डूबने के वक़्त) में न पढ़े, क्यूंकि इन वक्तों में किसी भी नमाज़ को पढ़ना सही नहीं है, हदीस में इन वक्तों में नामज़ पढ़ने से मना किया गया है।
जिस मुसलमान कि ज़िन्दगी में कोई नमाज़ क़ज़ा नहीं हुई है, या हुई हों तो 5 या उस से कम, उस आदमी को साहेबे तरतीब कहते हैं, तो अगर साहेबे तरतीब कि कोई नमाज़ क़ज़ा हो गई हो तो ऐसे में उस के लिए वक़्त वाली नामज़ से पहले क़ज़ा नमाज़ पढ़ना ज़रूरी है, जैसे: किसी कि ज़िन्दगी पहली बार फजर की नमाज़ क़ज़ा हो गई है, तो अब उस आदमी के लिए ज़ोहर कि नमाज़ से पहले फजर कि क़ज़ा ज़रूरी है।
फुकहा और मसयेइल के माहिर लोग ने बेहोश व्यक्ति पर फैसला सुनाया कि उसे कोमा की अवधि के दौरान छूटी हुई नमाज़ों को पूरा करने की ज़रूरत नहीं है, और उन्होंने उसे दिमाग के संयुक्त नुकसान के कारण पागल आदमी कि कटेगरी में रख्खा है, बशर्तेकी उसकी बेहोशी एक दिन या उस से ज़्यादा हो, पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वास्सलम कहते हैं:
عَنْ عَلِيٍّ، أَنَّ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَالَ: ” رُفِعَ القَلَمُ عَنْ ثَلَاثَةٍ: عَنِ النَّائِمِ حَتَّى يَسْتَيْقِظَ، وَعَنِ الصَّبِيِّ حَتَّى يَشِبَّ، وَعَنِ المَعْتُوهِ حَتَّى يَعْقِلَ ” (رواه أبو داود في سننه: 4399، والترمذي في سننه: 1423).
अनुवाद: हज़रत अली से रिवायत है, रसुलुललाह सल्लल्लाहु अलैहि वास्सलम ने फ़रमाया: कलम तीन लोगों लोगों से उठा लिया गया है, यानि शरियत का कोई आदेश उनपर लागु नहीं होगा: सोने वाले से जब तक वह जाग न जाए, पागल से जब तक वह ठीक न हो जाए, और लड़के से जब तक वह बड़ा न हो जाए। (अबू दाऊद: 4399, तिरमिज़ी: 1423)
क़ज़ा नमाज़ की नियत और पढ़ने का तरीका
जैसे दूसरी नमाज़ों की नियत करते हैं ऐसे ही क़ज़ा नमाज़ की नियत भी करते हैं कि: मैं फलां दिन की फजर कि नमाज़ पढ़ने जा रहा हूँ।
अब जिस तरह वक़्त वाली नमाज़ पढ़ते हैं ऐसी ही क़ज़ा नमाज़ भी पढ़ते हैं उसके पढ़ने का कोई अलग तरीका नहीं है।
क़ज़ा नमाज़ सिर्फ फ़र्ज़ नमाज़ों की होती है, सुन्नत नमाज़ों की नहीं होती है।
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