Islam Sab Ke Liye Rahmat copy

इस्लाम सबके लिए रहमत

हमारे आम देशबंधुओं का सामान्य विचार है कि इस्लाम ‘सिर्फ़ मुसलमानों’ का धर्म है और ईश्वर की सारी रहमतें सिर्फ़ उन्हीं के लिए हैं। इसके प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद साहब हैं जो ‘सिर्फ़ मुसलमानों’ के पैग़म्बर और महापुरुष हैं। क़ुरआन ‘सिर्फ़ मुसलमानों’ का धर्मग्रन्थ है और जिसकी शिक्षाओं का सम्बंध भी सिर्फ़ मुसलमानों से है। और वह सिर्फ़ मुसलमानों को ही सफलता का मार्ग दिखाता है। लेकिन सच्चाई इसके भिन्न है। स्वयं मुसलमानों के रवैये और आचार-व्यवहार की वजह से यह भ्रम उत्पन्न हो गया है। वरना अस्ल बात तो यह है कि इस्लाम पूरी मानव जाति के लिए रहमत है, हज़रत मुहम्मद (ईश्वर की कृपा और शान्ति हो उन पर) सारे इंसानों के पैग़म्बर, शुभचिन्तक, उद्धारक और मार्गदर्शक हैं और क़ुरआन पूरी मानवजाति के लिए अवतरित ईशग्रन्थ और मार्गदर्शक है।

 

इस्लाम का अर्थ


‘इस्लाम’ अरबी के मूल शब्द स, ल, म, से बना शब्द है। इन अक्षरों से बनने वाले शब्द दो अर्थ रखते हैं : एक-शान्ति, दो-आत्मसमर्पण। इस्लामी परिभाषा में इस्लाम का अर्थ होता है : ईश्वर के हुक्म, ईच्छा, मर्ज़ी और आदेश-निर्देश के सामने पूर्ण आत्मसमर्पण करके सम्पूर्ण व शाश्वत शान्ति प्राप्त करना…अपने व्यक्तित्व व आन्तरात्मा के प्रति शान्ति, दूसरे तमाम इंसानों के प्रति शान्ति, अन्य जीवधारियों के प्रति शान्ति, ईश्वर की विशाल सृष्टि के प्रति शान्ति, ईश्वर के प्रति शान्ति, इस जीवन के बाद परलोक-जीवन में शान्ति।

इस्लाम की मूल-धारणाएं (ईमान)


इस्लाम धर्म और सम्पूर्ण इस्लामी जीवन-प्रणाली का मूलाधार ‘विशुद्ध एकेश्वरवाद’ है। इसी के अंतर्गत ‘परलोकवाद’ और ‘ईशदूतवाद’ की धारणाएं आती हैं। इस तरह इस्लाम की मूल धारणाएं तीन हैं :

एकेश्वरवाद


ईश्वर एक है, मात्र एक। उसके जैसा, उसके समकक्ष दूसरा कोई नहीं। वह किसी पर (तनिक भी) निर्भऱ नहीं है, हर चीज़, हर जीव व निर्जीव उस पर निर्भर है। वह अकेला ही उपास्य, पूज्य व अराध्य है, इस में कोई दूसरा उसका साझी-शरीक नहीं। न वह किसी की सन्तान है न उसकी कोई सन्तान है। यह एकेश्वरवाद की इस्लामी व्याख्या है। (क़ुरआन सूरा-112)

 

ईश्वर सर्व-विद्यमान, सर्व-शक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्व-सक्षम, सर्व-समर्थ है। वही सबका स्रष्टा, सबका पोषणकर्ता, सबका स्वामी, सबका प्रभु है। वही सबको जीवन, मृत्यु, स्वास्थ्य, रोग, सुख-दुख देता है।

 

इन्सानों का भाग्य (Destiny)-अच्छा या बुरा-ईश्वर ने बनाया है। इन्सानों में से जो लोग अच्छे कार्य और ईशाज्ञापालन करेंगे और जो लोग बुरे काम, उद्दंडता व अवज्ञा करेंगे, सबके साथ ईश्वर परलोक में बेलाग इन्साफ़ करेगा और वहां न कोई पक्षपात होगा और न किसी का हस्तक्षेप चलेगा।

परलोकवाद


बीते हुए ज़मानों का इतिहास पढ़िए, आज की दुनिया पर नज़र दौड़ाइए, अपने देश, समाज, राजतंत्र व न्यायतंत्र को देखिए। कितना अत्याचार व अन्याय है? कितना व्यभिचार व अपराध है? कितना शोषण व भ्रष्टाचार है? कितना नोच-खसोट, रिश्वत, ग़बन, फ़साद, फ़ित्ना, क़त्लेआम है? कितना धोखा, फ़रेब, लूट-मार, घोटाले और स्कैं हैं? कैसा-कैसा शिर्क और ईश्वर के अधिकारों और आदेशों के प्रति कैसी उद्दंडता है? कितना मानवाधिकार हनन है? कितने लोगों को सज़ा मिलती है और कितनी सज़ा मिलती है? न्याय कितनों को मिलता है और कब, कितना मिलता है? क्या इस छोटे जीवन में पूर्ण न्याय, भरपूर सज़ा, सबको न्याय, हर अपराधी को उचित व पूरी सज़ा मिलनी संभव है? तो क्या यह संसार अंधेरनगरी है? क्या सबसे बड़ा, महानतम, शक्तिशाली ईश्वर तमाशबीन बना यह सब देख रहा है? वह इन्साफ़ न करेगा? अपराधियों को सज़ा न देगा?

 

इस्लाम की परलोकवादी धारणा के अनुसार अल्लाह के (अदृश्य) फ़रिश्ते हर इन्सान की एक-एक पल की कर्मपत्री तैयार कर रहे हैं। हर क्षण की वीडियो फ़िल्म बन रही है। यह जीवन अन्तिम नहीं है। मरने के बाद एक दिन आने वाला है जब सारे इन्सान पुनः जीवित किए जाएंगे। परलोक में इकट्ठे होंगे। अच्छे-बुरे कामों का, मानव-अधिकारों एवं ईश्वर के अधिकारों की पूर्ति या हनन का हिसाब होगा। छोटे-बड़े, शक्तिवान, बलवान, कमज़ोर का भेदभाव हुए बिना, कर्मपत्री के आधार पर बेलाग, न्यायपूर्ण ईश्वरीय फ़ैसला होगा। ग़लत लोग नरक में डाल दिए जाएंगे जिसमें वे हमेशा रहेंगे। सही लोगों को स्वर्ग मिलेगा जिसमें वे सदा रहेंगे।

इस तरह इस्लाम हर व्यक्ति में उत्तरदायित्व का बोध जगाकर उसे और समाज को नेक बनाने का प्रावधान करता है।

ईशदूतवाद


ईश्वर की वास्तविकता क्या है? मनुष्य और ईश्वर में संबंध क्या और कैसा होना चाहिए? ईश्वर का आज्ञापालन और उसकी उपासना कैसे की जाए? इन सब का पता तब तक नहीं चल सकता जब तक कि स्वयं ईश्वर ही यह सब अपने बन्दों को बताने का कोई उत्तम व विश्वसनीय प्रावधान न करे। वह तो निराकार है, तो क्या वह आकार धारण करके इन्सानों के समक्ष आए और स्वयं अपने निराकारी गुण को खंडित करे? फिर ईश्वर जैसी हस्ती मनुष्यों के लिए मानवीय आदर्श तो बन ही नहीं सकती। तब इन उलझनों का समाधान क्या है? इस्लाम इसका समाधान ‘ईशदूतवाद’ द्वारा करता है।

 

ईश्वर, समाज में से किसी सच्चे, चरित्रवान, सुशील, सज्जन, विश्वसनीय, विवेकशील एवं सत्यवान व्यक्ति को चुनता है। उसके हृदय, मस्तिष्क. चेतना पर (फ़रिश्ते के माध्यम से) अपनी वाणी (आदेश, निर्देश, मार्गदर्शन, आज्ञाएं, नियम, शिक्षाएं) अवतरित करता है और आदेश देता है कि इसी के अनुसार इन्सानों को शिक्षा-दीक्षा दे और उनके समक्ष स्वयं को ईश्वर-वांछित आदर्श, नमूना बनाकर पेश करे। इस प्रावधान और प्रक्रम को इस्लामी परिभाषा में ‘रिसालत’ या ‘नुबूवत’ (ईशदूत) कहा गया है। उस आदर्श व्यक्ति को रसूल, नबी (ईश-दूत, ईश-सन्देष्टा, Prophet) कहा गया है।

 

इस्लामी धारणा के अनुसार ईशदूतों को सिलसिला धरती पर मानवजाति के आरंभ से ही चला है। क़ुरआन के अनुसार काल-कालांतर में, हर क़ौम में रसूलों का चयन व स्थापन हुआ (13:7)। एक रसूल द्वारा दी गई ईश्वरीय शिक्षाओं को जब समय बीतते-बीतते लोग भुला बैठते, व्यक्ति व समाज में बिगाड़ आ जाता, ईश्वरीय आज्ञाओं का उल्लंघन होने लगता, एकेश्वर-पूजा के बजाय अनेकेश्वर-पूजा, शिर्क, कुफ़्र, मूर्तिपूजा होने लगती तो फिर एक नबी/रसूल आता। ईश्वरीय शिक्षाओं को ताज़ा और पुनः स्थापित करता। कुछ रसूलों को धर्म-विधान (शरीअत) भी दिया जाता जो धर्म-शास्त्रों के रूप में संकलित कर ली जाती।

 

इतनी लम्बी श्रृंखला की अन्तिम कड़ी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की है और उन पर अवतरित अन्तिम धर्म-ग्रन्थ क़ुरआन है। इस्लाम की मूल धारणाओं में यह ईशदूतवाद एक अनिवार्य तत्व है। इसके बिना एकेश्वरवाद की समझ, पहचान और यथार्थ ज्ञान न सम्पूर्ण हो सकता है न ही विश्वसनीय। इस्लामी धारणा में हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की रिसालत और अन्तिम ईशदूत होना तथा उन पर अवतरित ईशग्रन्थ ‘क़ुरआन’ का अन्तिम ग्रन्थ होना अनिवार्य स्थान व महत्व रखता है।

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